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Surdas
मन माने की बात ऊधौ मन माने की बात। दाख छुहारा छांडि अमृत फल विषकीरा विष खात॥ ज्यौं चकोर को देइ कपूर कोउ तजि अंगार अघात। मधुप करत घर कोरि काठ मैं बंधत कमल के पात॥
मन न भए दस-बीस ऊधौ मन न भए दस-बीस। एक हुतो सो गयो स्याम संग को अवराधै ईस॥ इंद्री सिथिल भई केसव बिनु ज्यों देही बिनु सीस। आसा लागि रहत तन स्वासा जीवहिं कोटि बरीस॥
चली ब्रज घर घरनि यह बात। नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात॥ कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ। कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ॥
मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ। मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ? कहा करौं इहि के मारें खेलन हौं नहि जात। पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात?
मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो| डारि सांटि मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो॥ बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो। सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥
मैया कबहुं बढैगी चोटी। किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥ तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी। काढत गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥
सोभित कर नवनीत लिए। घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥ चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए। लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
चरन कमल बंदौ हरि राई, जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई। बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई, सूरदास स्वामी करुनामय बार बार बंदौं तेहि पाई।