जीवन प्राप्ति का उद्देश्य है क्या, किस पथ पे इसे ले जाना है,
यह होता एक प्रबल मंथन, किस प्रकार इसे पार लगाना है ।। 1 ।।
किस हेतु मिला हमको यह जीवन, किस ओर प्रवाह ले जाएगा।
जीवन सरिता मे बहती नौका को, किस प्रकार पार लगाएगा ।। 2।।
तनिक करें हम अंतरमंथन, जीवन किस हेतु हमने पाया।
किस प्रयोजन को करना सिद्ध हमेँ, किस लक्ष्य को हमने अपनाया।। 3 ।।
मंथन से निष्कर्ष निकलता है, कि रचयिता ने हमे दिया जन्म।
इसकी राह स्वयं रची उसने, करवाने हेतु निर्धारित कर्म ।। 4 ।।
कोई भी नाम दें हम उसे, हर नाम का है यही निष्कर्ष।
जीवन पथ पर स्वयं धरो पाँव, करो निज का स्वयं उत्कर्ष ।। 5 ।।
राह न हो यदि पूर्व निर्धारित, कोई कुछ का कुछ क्यूँ बन जाता है।
वैज्ञानिक बनने चला व्यक्ति, डॉक्टर क्यूँ बन जाता है ।। 6 ।।
अधिकारी बनने की चाह लिये व्यक्ति, व्यापारी बन नाम कमाता है।
तो व्यापारी जो बनना चाहे, वह प्रोफेसर बन रह जाता है ।। 6 ।।
संतों ऋषियों सन्यासियों का जीवन भी, होता अपना पूर्व निर्धारित।
संयासी योगी पैगंबर प्रीस्ट, सभी होते इसी नियम से संचालित ।। 7 ।।
गृहस्थी में रमा व्यक्ति, सहसा विरक्त हो जाता है।
घर बार त्यागकर जाता वन में, संयासी कहलाता है ।। 8 ।।
गीता कहती यह खेल गुणों का, जो मानव से सब करवाते हैं।
सत् रज और तमस् मे बंधे मनुष्य के, संचालक बन जाते हैं ।। 9 ।।
भीष्म द्रोण जैसे सतोगुणी भी, अधर्म के सहभागी बने।
यह भी था पूर्व निर्धारित, जिसके थे वे अनुयायी बने ।। 10 ।।
तमस् गुण मे बंधकर मानव, दुर्योधन बन जाता
है।
कर्ण जैसा शूरवीर भी, अधर्म की राह अपनाता
है ।। 11 ।।
प्रभु ने स्वयं स्वीकारा था, कि युद्ध के हेतु स्वयं वे थे।
काल रूप मे हो अवतरित, लोकों के नाश हेतु थे प्रकट हुए ।। 12 ।।
भीष्म द्रोण कर्ण जयद्रथ, सभी काल के हुए ग्रास।
यह सब था पूर्व निर्धारित, नियति के हाथों बने दास ।। 13 ।।
पर यह सब देख हमें, नियति की कठपुतली बन जाना है।
अथवा आत्मोद्धार का पथ अपनाकर, स्वयं को उन्नत बनाना है ।। 14 ।।
गीता का है मूलमंत्र, मानव को अपना उद्धार आप ही करना है।
आत्मा को करना है उन्नत, न कि अधोगति मे पहुँचाकर दूषित करना है ।। 15 ।।
यह जीवात्मा आप ही अपना मित्र, और आप ही अपना शत्रु भी है।
उन्नत करने वाले का मित्र, अधोगति मे पहुंचाने वाले का शत्रु भी है ।। 16 ।।
यह सच है कि मानव जीवन, पूर्व निर्धारित ही होता है।
पर अपना उद्धार आप कर मानव, स्वयं उन्नत हो
सकता है ।। 17 ।।
आत्मोद्धार के पथ पर चलकर, दुर्योधन भी सुयोधन बन सकता था।
जयद्रथ सा महारथी भी, द्रौपदी हरण के दुष्कर्म से बच सकता था ।। 18 ।।
कर्ण जैसा योद्धा भी, यदि आत्मोद्धार को अपनाता।
द्रौपदी को अपशब्द ना कहता, अधर्म की राह पर ना जाता ।। 19 ।।
जीवन का सार रहा क्या आखिर, भीष्म ने चिंतन मे पाया।
चिंतन सागर को मथ कर, धर्मराज को ज्ञान का माखन चखाया ।। 20 ।।
बाल्यावस्था देती जीवन मे प्रतिपल, एक नई कल्पना को जन्म।
गृहस्थ जीवन जाता संघर्षों मे, निभाते हुए सबके प्रति निज धर्म।। 21 ।।
जीवन के इस सोपान मे, दायित्व समझ मे आते हैं।
कितना निभा पाएंगे दायित्वों को, चिंतन से तब हम पाते हैं ।। 21 ।।
मानव जीवन लक्ष्य सबके लिये एक है, हों संयासी या गृहस्थ।
आत्मोद्धार के पथ को अपनाएं, करें स्वयं को सब भाँति समर्थ ।। 22 ।।
अपना उद्धार आप कर, जीवन को सफल बनाना है।
अपनी आत्मा को कर उन्नत, अधोगति से इसे बचाना है ।। 23 ।।
अज्ञात कवि

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