संत कबीर के प्रसिद्ध दोहे
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कहत कबीर सुनहु रे लोई।
हरि बिन राखन हार न कोई॥
नारी तो हम भी करी,
पाया नहीं विचार।
जब जानी तब परिहरि,
नारी महाविकार॥
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पाहन पूजे हरि मिलैं तो मैं पूजौं पहार।
ता ते तो चाकी भली, पीस खाय संसार॥
यह जग कोठी काठ की,
चहुँदिस लागी आग।
भीतर रहै सो जलि मुए,
साधू उबरे भाग॥
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कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढ़े वन माहिं।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं॥
दुख में सुमिरन सब करें,
सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करै,
तो दुख काहे को होय॥
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ऊँचे कुल क्या जननियाँ, जे करणी ऊँच न होई।
सोवन कलस सुरै भरया, साधु निंदा सोई॥
जहाँ दया वहाँ धर्म है,
जहाँ लोभ तहाँ पाप।
जहाँ क्रोध तहाँ काल है,
जहाँ क्षमा तहाँ आप॥
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कबिरा खड़ा बजार में, सबकी माँगे खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर॥
कबिरा खड़ा बजार में,
लिये लुकाठी हाथ।
जो घर फूँके आपना,
चले हमारे साथ॥
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कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जाने, सो काफिर बेपीर॥
मन ऐसा निर्मल भया,
जैसे गंगा नीर।
पीछे-पीछे हरि फिरें,
कहत कबीर-कबीर॥
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राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट।
अंत काल पछताएगा, जब प्राण जाएँगे छूट॥
सुखिया सब संसार है, खाए और सोए।
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोए॥
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दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
बिना जीव की साँस सो, लौह भसम होइ जाय॥
काल करे सो आज कर,
आज करै सो अब।
पल में परलय होयगी,
बहुरि करैगो कब॥
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