श्री राम-लक्ष्मण और परशुराम-संवाद – Lakshman Parshuram Samvad
सीता जी के स्वयंवर मे जब श्री राम ने शिव धनुष तोड़ा तो ,
शिवजी के धनुष को टूटा देख कर परशुराम प्रकट हुये और चिल्ला कर बोले –
सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह मेरा शत्रु है,
वह सामने आ जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे।
मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कुराए और बोले
हे परशुराम जी , बचपन में हमने बहुत से धनुष तोड़ डाले किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया, इसी धनुष के टूटने पर आप इतना गुस्सा क्यों कर रहे हैं ?
परशुराम :हे बालक,सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या कोई छोटा मोटा धनुष समझा है।
लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! , हमारे समझ में तो सभी धनुष एक से ही हैं। फिर यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप तो बिना ही बात क्रोध कर रहे हैं?
परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले-
अरे दुष्ट! तू मुझे नहीं जानता, मैं तुझे बालक जानकर नहीं मार रहा हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही समझता है तूने मेरा गुस्सा नहीं देखा है जिसके लिए मैं विश्वभर में विख्यात हूँ । अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया , सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस भयानक फरसे को देख और चुप बैठ।
लक्ष्मणजी हँसकर बोले- अहो, मुनीश्वर तो अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हो , बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हो , फूँक मारके पहाड़ उड़ाना चाहते हो । मैं तो आपको संत ज्ञानी समझकर आपकी इज्ज़त कर रहा हूँ ।
यह सुनकर परशुरामजी गुस्से मे बोले-
हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा उद्दण्ड, मूर्ख है, अभी एक मिनट में मेरे हाथों मारा जाएगा ,यदि तुम इसे बचाना चाहते होतो इसे समझा लो वरना बाद में मुझे दोष मत देना ।
लक्ष्मणजी ने कहा- —हे मुनि! आप अपनी शूरवीरताअनेकों बार बखान चुके हैं असली शूरवीर डींग नहीं मारा करते । बार बार ‘मार दूंगा’ कहकर मुझे डराए मत ।
लक्ष्मणजी के कटु वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने फरसे को संभाला और बोले-
लोगों अब मुझे दोष न दें। यह कडुआ बोलने वाला बालक मारे जाने के ही योग्य है। इसे बालक देखकर मैंने बहुत सोचा पर अब यह सचमुच मरने को उतारू हो रहा है ।
विश्वामित्रजी ने कहा-आप तो महा ज्ञानी हैं ,यह नादान बालक है इसका अपराध क्षमा कीजिए।
परशुरामजी बोले—- यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने उत्तर दे रहा है। फिर भी केवल तुम्हारी वजह से मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ विश्वामित्र! । नहीं तो इसे फरसे से काटकर अभी तक इसका काम तमाम कर चुका होता ।
विश्वामित्रजी ने मन ही मन सोचा – परशुराम जी , राम-लक्ष्मण को भी साधारण राजकुमार ही समझ रहे हैं।
लक्ष्मणजी ने कहा–
परशुरामजी ,आपको कभी रणधीर बलवान् वीर नहीं टकरे हैं,इसीलिए आप घर में ही शेर हैं ।
तब श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिया ।
लक्ष्मणजी के कटाक्षों से, परशुरामजी के गुस्से को बढ़ते देखकर श्री रामचंद्रजी बोले –
परशुराम जी ! लक्ष्मण तो नादान बालक है यदि यह आपका कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता ,आप तो गुरुसमान है , उसे माफ कर दें ।
श्री रामचंद्रजी के वचन सुनकर वे कुछ ठंडे पड़े। इतने में लक्ष्मणजी कुछ कहकर फिर मुस्कुरा दिए। उनको हँसते देखकर परशुरामजी फिर उबल पड़े ।
परशुराम जी कहा-
हे राम! तेरा भाई बड़ा नालायक है,यह देखने में तो बड़ा भोला लगता है पर स्वभाव से टेढ़ा है, वो तो तेरी बात भी नहीं मानता , इसके दिल में सामने खड़ी मौत का भी खौफ नहीं है ।
लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे मुनि! सुनिए, अब क्रोध त्याग दीजिए। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड़ नहीं जाएगा। खड़े-खड़े पैर दुःखने लगे होंगे, बैठ जाइए । यदि यह धनुष आपको इतना ही प्रिय था तो किसी बड़े कारीगर को बुलाकर जुड़वा देते हैं ।
लक्ष्मणजी के बोलने से जनकजी डर जाते हैं और कहते हैं-
लक्ष्मण जी , बस, चुप रहिए, अनुचित बोलना अच्छा नहीं।
जनकपुर के स्त्री-पुरुष थर-थर काँप रहे हैं और मन ही मन प्रार्थना कर रहे हैं कि बात ज्यादा आगे न बढ़े ।
श्री रामचन्द्रजी पर एहसान जताकर परशुरामजी बोले-
तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे छोड़ रहा हूँ।
यह सुनकर लक्ष्मणजी फिर हँसे। तब श्री रामचन्द्रजी ने तिरछी नजर से उनकी ओर देखा, जिससे लक्ष्मणजी सकुचाकर, विपरीत बोलना छोड़कर, गुरुजी के पास चले गए
श्री रामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ बोले-
परशुरामजी, आपका वीरों का सा वेष देखकर ही बालक ने कुछ कह डाला था, वास्तव में उसका भी कोई दोष नहीं है, आपको फरसा , बाण और धनुष धारण किए देखकर और वीर समझकर बालक को क्रोध आ गया। वह आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नहीं। अपने रघुवंश के स्वभाव के अनुसार उसने उत्तर दिया । आप मुनि की तरह आते, तो बालक आपके चरणों की धूलि सिर पर रखता। अनजाने की भूल को क्षमा कर दीजिए। लक्ष्मण ने तो धनुष नहीं तोड़ा ,धनुष तो मैंने तोड़ा है आपका अपराधी तो मैं हूँ । जो कुछ करना हो, मुझ पर कीजिए ताकि शीघ्र आपका क्रोध दूर हो । बताइए, मेरी क्या सजा है ।
परशुरामजीने कहा- हे राम! क्रोध कैसे जाए, अब भी तेरा छोटा भाई मुझे चिड़ा रहा है। इसकी गर्दन पर वार करे बिना मेरा गुस्सा कैसे शांत हो सकता है ।
श्री रामचन्द्रजी फिर दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ बोले-
क्रोध छोड़िए आपके हाथ में फरसा है और मेरा यह सिर आगे है, जिस प्रकार आपका क्रोध जाए, वही कीजिए।
तब परशुरामजी हृदय में अत्यन्त क्रोध भरकर श्री रामजी से बोले-
तू शिवजी का धनुष तोड़कर उलटा हम ही को ज्ञान सिखाता है।तेरा यह भाई तेरी ही सहमति से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोड़कर विनय करता है। अरे शिव धनुष तोड़ने वाले मुझसे युद्ध कर नहीं तो तेरे भाई सहित तुझे मार डालूँगा।
इस प्रकार परशुरामजी कहे जा रहे हैं और श्री रामचन्द्रजी सिर झुकाए मन ही मन मुस्कुरा रहे थे । श्री रामचन्द्रजी ने कहा-
परशुरामजी ,स्वामी और सेवक में युद्ध कैसा? क्रोध का त्याग कीजिए। संतो के हृदय में बहुत अधिक दया होनी चाहिए।
हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहाँ मेरा राम मात्र छोटा सा नाम और कहाँ आप का नाम परशुराम । हे देव! हमारे पास तो एक ही गुण है –धनुष विद्या और आपके पास तो –तप, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता आदि नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं। हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए ।
तब परशुरामजी क्रोध की हँसी हँसकर बोले-
तू भी अपने भाई के समान ही टेढ़ा है । तू मुझे निरा संत ही समझता है । बड़े-बड़े राजाओं की मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दी है। जैसे मंत्रोच्चारण पूर्वक ‘स्वाहा‘ शब्द के साथ आहुति दी जाती है, उसी प्रकार मैंने पुकार-पुकार कर राजाओं की बलि दी है।
-मेरा प्रभाव तुझे मालूम नहीं है, तभी तू भी बोल रहा है । धनुष क्या तोड़ डाला, इससे तेरा घमंड बहुत बढ़ गया है। ऐसा अहंकार है, मानो संसार को जीतकर खड़ा है।
श्री रामचन्द्रजी ने कहा-
हे मुनि! पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया इस पर मैं किस कारण अभिमान करूँ । एक छोटी सी भूल पर आप इतना गुस्सा मत करें । जहां तक युद्ध करने का सवाल है तो सत्य सुनिए, संसार में ऐसा कौन योद्धा है, जिसके आगे हमने डरके मारे मस्तक नवाएँ। रघुवंशी रण में काल से भी नहीं डरते। यदि रण में हमें कोई भी ललकारे तो हम उससे लड़ेंगे, जो युद्ध में डर गया, वो समझो मर गया ।संतो का तो हम सम्मान करते है ,उनकी महिमा ही ऐसी है । जो वीर एवं निडर होता है, वह भी संतो और ज्ञनियों का आदर करता है, आदरस्वरूप उनसे डरता है ।
श्री रघुनाथजी के वचन सुनकर परशुरामजी की बुद्धि के परदे खुल गए । वो समझ गए की इस शिव धनुष को तोड़ने वाला कोई साधारण पुरुष नहीं हो सकता तब उनकी समझ मे आया की यह तो साक्षात प्रभु राम है ।
परशुरामजी बोले –
प्रभु , क्षमा करना , मुझसे भूल हो गयी ,मैंने अनजाने में आपको बहुत से अनुचित वचन कहे। मुझे क्षमा कीजिए॥
टिप्पणी: यह लेख मूल रूप से सतीश चन्द्र जैन द्वारा पोस्ट किया गया था।