Kavya by Subhash Singh

770
1

जनता

नेता और जनता की

ये कैसी आंखमिचोली है

की नेता कितने घाग

जनता कितनी भोली है

दोनों ही इस बात को

बखूबी जानते है

पर कोई आदत से

मजबूर है

और कोई मजबूरी

से मजबूर है

ये मजबूरी ही तो है

जिस कारन

जनता को नेता की

जीत का जश्न भी मनाना है !

और कोरोना से मरने

वाले अपनों का मातम भी !

दौलत का करिश्मा

वाह री दौलत तेरा करिश्मा भी कैसा करिश्मा  है ? की जिसका अभाव हज़ारों कीमती जिंदगियोंको लील गया !और जिसका बेहिसाब अम्बार भी कुछ तथाकथित वी आई पी जिंदगियों को बचा न सका  !

अकड़

जब तक जिस्म में जान रही तब तक अकड़ आँखों की पहचान रही और जिस्म से जान निकलते ही यह आँखों से तो जाती रही मगर खुद जिस्म की ही पहचान हो गयी

रोशनी

रोशनी की अगर तुम्हे तलाश है तो बाहर मत देखो बाहर तो सिर्फ़ अंधेरा और सिर्फ़ अंधेरा है ढूँढते रह जाओगे और अंधेरो मे गहरे कहीं खो जाओगे तुम्हारे चारों तरफ़ फैला अंधकार तुम्हे डरा देगा रोशनी चाहिए तो अपने अंदर झाँको और चमक उत्पन्न करो वैसे ही जैसे अनंत अंधेरे आकाश मे नन्हा तारा सिर्फ़ अपनी रोशनी के दम पर निडर हो चमकता है

Subhash Singh

और पढ़े

Sahitya Hindi
WRITTEN BY

Sahitya Hindi

हिंदी साहित्य काव्य संकल्प ऑनलाइन पोर्टल है और हिंदी कविताओं और अन्य काव्यों को प्रकाशित करने का स्थान है। कोई भी आ सकता है और इसके बारे में अपना ज्ञान साझा कर सकता है और सदस्यों से अन्य संभावित सहायता प्राप्त कर सकता है। यह सभी के लिए पूरी तरह से फ्री है।

Leave a Reply

One thought on “Kavya by Subhash Singh

  1. […] यहाँ और पढ़ें.. Kavya by Subhash Singh […]